
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को तिब्बती आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा को उनके 90वें जन्मदिन पर बधाई दी और उनके अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना की। यह शुभकामनाएं ऐसे समय आई हैं जब दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर अंतरराष्ट्रीय और कूटनीतिक मंचों पर बहस तेज है, और चीन इस विषय पर भारत समेत सभी देशों को ‘सावधानी बरतने’ की चेतावनी दे चुका है।
प्रधानमंत्री मोदी इस समय ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में हैं, जहां वे 17वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भाग ले रहे हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपने आधिकारिक सोशल मीडिया मंच ‘X’ (पूर्व में ट्विटर) पर दलाई लामा को खुले तौर पर समर्थन देते हुए लिखा:
“मैं 1.4 अरब भारतीयों के साथ परम पावन दलाई लामा को उनके 90वें जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं। वह प्रेम, करुणा, धैर्य और नैतिक अनुशासन के स्थायी प्रतीक रहे हैं। उनका संदेश सभी धर्मों में सम्मान और प्रशंसा की प्रेरणा रहा है। हम उनकी अच्छी सेहत और लंबी उम्र की प्रार्थना करते हैं।”
दलाई लामा को जन्मदिन की बधाई देना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि यह भारत की रणनीतिक कूटनीति में बदलाव का स्पष्ट संकेत है। वर्षों तक भारत सरकारें चीन को नाराज़ न करने की नीति के तहत दलाई लामा से सार्वजनिक दूरी बनाए रखती थीं। लेकिन साल 2021 में प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार दलाई लामा को खुले तौर पर जन्मदिन की बधाई देकर उस रुझान को तोड़ा।
यह बदलाव ऐसे समय आया जब भारत-चीन संबंध लद्दाख में गलवान संघर्ष और सीमावर्ती तनातनी के कारण तनावपूर्ण बने हुए थे। मोदी सरकार का यह रवैया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तिब्बत और मानवाधिकार के मुद्दों पर भारत की स्वायत्त नीति को दर्शाता है।
दलाई लामा वर्ष 1959 में तिब्बत से चीन की कार्रवाई के बाद भारत आए थे और तब से ही वह हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निवास कर रहे हैं। भारत सरकार ने उन्हें शरण दी और धर्मशाला को तिब्बती निर्वासित सरकार का मुख्यालय बनने की अनुमति दी।
हालांकि, चीन दलाई लामा को एक “विभाजनकारी चरित्र” के रूप में देखता है और बार-बार विरोध जताता रहा है कि कोई भी देश उन्हें आधिकारिक रूप से समर्थन न दे।
दलाई लामा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नोबेल शांति पुरस्कार, कांग्रेस का स्वर्ण पदक, और यूएन मानवाधिकार सम्मान जैसे कई सम्मान मिल चुके हैं।
प्रधानमंत्री मोदी की पोस्ट के कुछ घंटों बाद ही चीन की विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने एक बयान जारी करते हुए कहा:
“हम भारत से अपील करते हैं कि वह अपने शब्दों और कार्यों में सावधानी रखे। तिब्बत चीन का आंतरिक मामला है और इसमें किसी तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप अस्वीकार्य है।”
चीन पहले भी अमेरिका, जापान, यूरोपीय संघ और भारत को दलाई लामा के साथ किसी भी राजनीतिक संपर्क पर आपत्ति जताता रहा है।
दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर चीन और तिब्बतियों के बीच गहरा मतभेद है।
दलाई लामा पहले ही कह चुके हैं कि:
“मेरे बाद दलाई लामा की परंपरा जारी रहेगी। उत्तराधिकारी का चयन तिब्बती बौद्ध परंपरा और जनता की इच्छा के अनुसार होगा, न कि किसी सरकार की मर्जी से।”
चीन चाहता है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी को बीजिंग समर्थित धार्मिक निकाय द्वारा चुना जाए, जिससे उसे तिब्बती बौद्ध धर्म पर नियंत्रण मिल सके। जबकि तिब्बती समुदाय चाहता है कि उत्तराधिकारी का चयन पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता और ऐतिहासिक परंपराओं के अनुरूप हो।
धर्मशाला में दलाई लामा के जन्मदिन पर भव्य कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिसमें तिब्बती बौद्धों, पर्यटकों और भारतीय नागरिकों ने भाग लिया। भजन, मंत्रोच्चार, पारंपरिक नृत्य और सांस्कृतिक झांकियाँ प्रस्तुत की गईं।
अमेरिकी विदेश मंत्री ने भी दलाई लामा को बधाई देते हुए उन्हें
“बेजुबानों की आवाज और विश्व शांति के प्रतीक”
बताया।
तिब्बती युवाओं ने धर्मशाला में आयोजित एक जुलूस में हिस्सा लिया और “Free Tibet” जैसे नारों के माध्यम से अपनी आवाज़ उठाई।
14वें दलाई लामा का असली नाम ल्हामो थोंडुप था। उनका जन्म के कुछ समय बाद ही उन्हें दलाई लामा के रूप में मान्यता दी गई और फिर उन्हें नया धार्मिक नाम “तेनज़िन ग्यात्सो” प्रदान किया गया। यह नाम संस्कृत-बौद्ध परंपरा में उनके उच्च आध्यात्मिक दर्जे को दर्शाता है।
तेनज़िन ग्यात्सो का जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के ताकस्तेर गांव (अमदो क्षेत्र) में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। दो वर्ष की उम्र में उन्हें 13वें दलाई लामा का पुनर्जन्म माना गया। बौद्ध धार्मिक परंपराओं के अनुसार, उनका चयन विभिन्न आध्यात्मिक संकेतों और परीक्षणों के माध्यम से हुआ।
तेनज़िन ग्यात्सो को 1939 में औपचारिक रूप से 14वां दलाई लामा घोषित किया गया। उन्होंने मात्र 15 वर्ष की उम्र में तिब्बत के धार्मिक और राजनीतिक नेता के रूप में कार्यभार संभाला, जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण शुरू कर दिया था। इस जिम्मेदारी को उन्होंने अत्यंत कठिन समय में स्वीकार किया और संघर्ष के मार्ग पर चल पड़े।
वर्ष 1959 में तिब्बत में चीनी अधिग्रहण और दमनकारी नीतियों के चलते दलाई लामा ने हजारों अनुयायियों के साथ भारत में शरण ली। भारत सरकार ने उन्हें हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निवास की अनुमति दी। तभी से धर्मशाला “तिब्बती सरकार-इन-एक्ज़ाइल” और बौद्ध धर्म के वैश्विक केंद्र के रूप में विकसित हुआ।
वर्तमान में दलाई लामा धर्मशाला के निकट मैक्लॉडगंज में रहते हैं। यही स्थान तिब्बती निर्वासित सरकार और तिब्बती बौद्ध आध्यात्मिक गतिविधियों का मुख्यालय है। यहीं से वे अपने वैश्विक दौरे, संवाद और शिक्षाएं संचालित करते हैं।
दलाई लामा को उनके शांति, मानवता, अहिंसा और धार्मिक सहिष्णुता के लिए वैश्विक स्तर पर अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं:
नोबेल शांति पुरस्कार (1989)
अहिंसा और करुणा के सिद्धांतों पर आधारित संघर्ष के लिए उन्हें इस प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
यूएस कांग्रेस गोल्ड मेडल
अमेरिका का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, जो दलाई लामा को 2007 में अमेरिकी संसद द्वारा प्रदान किया गया।
गांधी शांति पुरस्कार (भारत)
अहिंसक विचारों और मानवीय मूल्यों के प्रचार-प्रसार हेतु उन्हें भारत सरकार द्वारा यह सम्मान प्रदान किया गया।
इसके अतिरिक्त उन्हें 100 से अधिक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार, डॉक्टरेट उपाधियाँ और वैश्विक मंचों से सम्मान प्राप्त हुए हैं।
दलाई लामा के विचार मानवता के सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित हैं। उनका जीवन दर्शन धार्मिक मतभेदों से ऊपर उठकर करुणा, सह-अस्तित्व और संवाद को प्राथमिकता देता है:
करुणा (Compassion)
“करुणा ही सच्चा धर्म है।”
अहिंसा (Non-Violence)
महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने संघर्ष की राह में कभी हथियार नहीं उठाया।
धार्मिक सहिष्णुता
वे सभी धर्मों को समान रूप से आदर देने की बात करते हैं, और विभिन्न पंथों के बीच संवाद के समर्थक हैं।
आत्मानुशासन और ध्यान
उनका मानना है कि आंतरिक शांति बाहरी दुनिया को प्रभावित करने की शक्ति रखती है। ध्यान और अनुशासन से मनुष्य आत्मिक रूप से सशक्त बनता है।
“धर्म से पहले मानवता”
दलाई लामा अक्सर कहते हैं,
“My religion is very simple. My religion is kindness.”
दलाई लामा के जीवन का सबसे विवादास्पद और महत्वपूर्ण मुद्दा है — उनके उत्तराधिकारी का चयन।
चीन यह कह चुका है कि अगला दलाई लामा चीनी धार्मिक मामलों के विभाग की निगरानी में चुना जाएगा।
वह दलाई लामा को एक अलगाववादी नेता मानता है और तिब्बत में उनके प्रभाव को समाप्त करना चाहता है।
वे बार-बार स्पष्ट कर चुके हैं कि उनका उत्तराधिकारी तिब्बती बौद्ध परंपराओं और समुदाय की इच्छा से तय होगा, न कि किसी सरकार द्वारा।
उन्होंने यह भी कहा है कि यदि तिब्बत की स्थिति अनुकूल नहीं हुई, तो वह पुनर्जन्म भारत या किसी स्वतंत्र क्षेत्र में ले सकते हैं।
वे यह विकल्प भी खुला रखते हैं कि दलाई लामा की परंपरा को समाप्त किया जा सकता है, यदि वह जनहित में न हो।
अमेरिका और यूरोपीय देश दलाई लामा के स्वतंत्र उत्तराधिकारी चयन के पक्ष में हैं।
भारत की स्थिति अब पहले की तुलना में अधिक स्पष्ट हो चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दलाई लामा को सार्वजनिक रूप से शुभकामनाएं देना इस बात का संकेत है कि भारत अब इस मुद्दे पर कूटनीतिक स्वतंत्रता रखता है।
दलाई लामा का जीवन केवल तिब्बत तक सीमित नहीं रहा। वे विश्व शांति, पर्यावरण संरक्षण, धार्मिक सहिष्णुता और मनोविज्ञान और विज्ञान के संवाद को लेकर लगातार प्रयासरत रहे हैं।
वे कहते हैं:
“हम सभी एक ही मानवता के अंग हैं। मेरा धर्म है – करुणा।”
अमेरिका, यूरोप, जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों में दलाई लामा को एक मानवतावादी संत के रूप में देखा जाता है। वे अक्सर धर्मनिरपेक्ष नैतिकता, युवाओं में आत्म-नियंत्रण, और अहिंसा के पक्षधर रहे हैं।
दलाई लामा पर सार्वजनिक रूप से समर्थन जताना भारत की नई विदेश नीति का प्रतीक है – विशेष रूप से तब जब भारत ग्लोबल साउथ, क्वाड, और इंडो-पैसिफिक में बड़ी भूमिका निभा रहा है।
भारत के एक वरिष्ठ कूटनीतिक अधिकारी के अनुसार:
“भारत अब अपनी विदेश नीति को चीन की इच्छानुसार नहीं ढाल रहा है। दलाई लामा को समर्थन देना एक सैद्धांतिक और रणनीतिक दोनों स्तर पर संदेश है।”