
आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पूरे भारतवर्ष में श्रद्धा और भक्ति के साथ देवशयनी एकादशी के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने देशवासियों को शुभकामनाएं दीं और भगवान विट्ठल के चरणों में सुख-समृद्धि की प्रार्थना की।
देवशयनी एकादशी को ‘आषाढ़ी एकादशी’ के नाम से भी जाना जाता है। यह दिन भगवान विष्णु के चार महीने तक योगनिद्रा में जाने का प्रतीक है, जिसे ‘चातुर्मास’ की शुरुआत के रूप में भी देखा जाता है। महाराष्ट्र में यह दिन विशेष रूप से प्रसिद्ध है क्योंकि इसी दिन पंढरपुर यात्रा का समापन होता है और लाखों वारी श्रद्धालु भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए पैदल यात्रा करते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शुभ अवसर पर देशवासियों को बधाई देते हुए लिखा,
“देशवासियों को आषाढ़ी एकादशी की असीम शुभकामनाएं। यह पावन अवसर हर किसी के लिए फलदायी सिद्ध हो, यही कामना है।”
एक अन्य पोस्ट में उन्होंने भगवान विट्ठल की भक्ति करते हुए लिखा:
“आषाढ़ी एकादशी के इस पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं! भगवान विट्ठल जी का आशीर्वाद हम पर सदैव बना रहे, यही विट्ठल जी के चरणों में हमारी प्रार्थना और कामना है। भगवान विट्ठल जी हमें सुखी और समृद्ध समाज की ओर ले जाते रहें, और हम भी गरीबों और वंचितों की सेवा करते रहें।”
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने रविवार को पंढरपुर में भगवान विट्ठल और देवी रुक्मिणी के मंदिर में पूजा-अर्चना की। वे अपनी पत्नी अमृता फडणवीस और बेटी दिविजा के साथ महापूजा में सम्मिलित हुए।
मुख्यमंत्री ने सोशल मीडिया पर अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए लिखा:
“आषाढ़ी एकादशी के अवसर पर आज पंढरपुर में देवी विठ्ठल-रुक्मिणी के चरणों में अपनी पत्नी अमृता और बेटी दिविजा के साथ महापूजा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस अवसर पर देवी विठ्ठल-रुक्मिणी के दर्शन से मन प्रसन्न हो गया। देवी विठु माऊली और देवी रखुमाई के चरणों में नतमस्तक होकर किसानों, मेहनतकश लोगों और राज्य के सभी लोगों की सुख-समृद्धि और महाराष्ट्र के विकास के लिए प्रार्थना की।”
महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे रविवार की सुबह मुंबई के वडाला स्थित श्री विट्ठल मंदिर पहुंचे। यहां उन्होंने विधिपूर्वक भगवान विट्ठल की पूजा की और प्रदेशवासियों को शुभकामनाएं दीं।
“आषाढ़ी एकादशी हमारे लिए आत्मिक जागृति और सामाजिक सेवा का पर्व है। भगवान विठ्ठल की कृपा से महाराष्ट्र और पूरा देश उन्नति करे, यही मेरी प्रार्थना है।”
पंढरपुर की यात्रा को ‘वारी’ कहा जाता है जिसमें लाखों की संख्या में वारकरी, जो भगवा झंडा लेकर पदयात्रा करते हैं, पंढरपुर में भगवान विठ्ठल के दर्शन के लिए पहुँचते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसकी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्ता अत्यंत गहरी है।
इस वर्ष भी वारकरी समुदाय ने पुणे, सोलापुर, नाशिक, और अहमदनगर जैसे विभिन्न जिलों से यात्रा प्रारंभ की थी। श्रद्धालुओं ने “विठोबा रखुमाई की जय” के जयघोष के साथ, भगवा ध्वज लेकर उत्साहपूर्वक यात्रा की। भीषण गर्मी और बारिश के बावजूद भक्तों के जोश में कोई कमी नहीं आई।
सोलापुर जिले के पंढरपुर में स्थित भगवान विठ्ठल का मंदिर सुबह से ही श्रद्धालुओं से खचाखच भरा रहा। भक्तों ने मंदिर में कीर्तन, भजन, और अभिषेक कर भगवान को प्रसन्न किया। मंदिर परिसर में ढोल-ताशों की धुन और ‘गजानन महाराज की जय’ जैसे उद्घोषों से वातावरण भक्तिमय हो उठा।
कई वारकरी मंदिर परिसर में ही रात्रि विश्राम करते हैं और रथ यात्रा, पालखी और झांकी जैसे पारंपरिक आयोजनों का हिस्सा बनते हैं। महाराष्ट्र सरकार द्वारा सुरक्षा, भोजन और स्वास्थ्य की विशेष व्यवस्था की गई थी।
पंढरपुर यात्रा और आषाढ़ी एकादशी केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, आत्मीयता और लोकसंवाद का प्रतीक है। यह पर्व सभी जातियों, वर्गों, और आयु समूहों को एक साथ लाता है। इस अवसर पर विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं भी गरीबों को भोजन, वस्त्र और दवा वितरण जैसे सेवा कार्य करती हैं।
पुणे के सामाजिक कार्यकर्ता संतोष भोंसले कहते हैं,
“वारी केवल यात्रा नहीं, यह हमारी आत्मा की यात्रा है। यह हमें सिखाती है कि सेवा, त्याग, और प्रेम से ही समाज में स्थायी परिवर्तन संभव है।”
धार्मिक मान्यता के अनुसार, आषाढ़ी एकादशी के दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं और कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) को जागते हैं। इन चार महीनों को ‘चातुर्मास’ कहा जाता है, जिसमें विवाह, मांगलिक कार्य आदि वर्जित रहते हैं और साधक आत्मचिंतन और उपासना में लीन रहते हैं।
वारी यात्रा की परंपरा की शुरुआत 13वीं शताब्दी में मानी जाती है, जब संत ज्ञानेश्वर और संत नामदेव ने पंढरपुर तक पैदल यात्रा कर विठोबा (भगवान विष्णु के स्वरूप) के दर्शन किए। इसके पश्चात संत तुकाराम ने भी इसी परंपरा को अपनाया। इन संतों की प्रेरणा से भक्तों ने इस यात्रा को हर वर्ष दोहराना प्रारंभ किया और इसे एक सामूहिक भक्ति आंदोलन का रूप दे दिया।
यह परंपरा संतों की शिक्षाओं पर आधारित है जिसमें समता, भक्ति, सेवा और आत्मज्ञान का प्रचार किया गया।
यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक साधना का अवसर होती है जिसमें श्रद्धालु भौतिक सुखों को त्यागकर आत्म-शुद्धि का प्रयास करते हैं।
वारी यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र परंपरा होती है संतों की पालखी यात्रा। यह पालखियाँ संबंधित संतों के समाधि स्थलों से पंढरपुर तक लाई जाती हैं और लाखों वारकरी इन पालकियों के साथ पैदल चलते हैं।
संत ज्ञानेश्वर की पालखी अलंदी (पुणे) से निकलती है।
यह यात्रा 21 दिनों तक चलती है और विभिन्न गांवों, कस्बों में रुकती है।
संत तुकाराम की पालखी देहू (पुणे) से प्रारंभ होती है।
यह वारी के प्रमुख केंद्रों में से एक मानी जाती है।
संत नामदेव की पालखी नरसिंहवाड़ी या हिंगोली क्षेत्र से निकलती है।
इन संतों की पालकियाँ श्रद्धा और सम्मान के साथ रथ पर रखी जाती हैं, और उनके साथ भजन मंडलियाँ, कीर्तनकार और वारकरी चलते हैं।
वारी यात्रा की लंबाई पालखी के प्रस्थान स्थल पर निर्भर करती है, लेकिन औसतन यह यात्रा 250 से 300 किलोमीटर की होती है।
वारकरी प्रतिदिन लगभग 15–25 किमी की दूरी तय करते हैं।
पूरे रास्ते में भजन-कीर्तन, कीर्तनसभा, प्रवचन और सामूहिक भोजन (महाप्रसाद) का आयोजन होता है।
यात्रा में महिलाएं, पुरुष, बुजुर्ग, युवा और बच्चे – सभी उम्र के लोग शामिल होते हैं।
यह यात्रा केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक तपस्या होती है, जिसमें अनुशासन, संयम और सामूहिकता के गुण आत्मसात किए जाते हैं।
वारी यात्रा के लिए महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों से अलग-अलग पालखियाँ और श्रद्धालु जत्थे निकलते हैं। कुछ प्रमुख स्थल:
संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम की पालखियाँ यहीं से प्रारंभ होती हैं।
यह यात्रा धार्मिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।
पंढरपुर इसी जिले में स्थित है और यात्रा का अंतिम पड़ाव भी यहीं होता है।
कई वारकरी अहमदनगर से सामूहिक रूप से जुड़ते हैं।
यहां से संत एकनाथ और संत जनार्दन स्वामी की पालखियाँ भी निकलती हैं।
इन सभी मार्गों पर सरकार द्वारा ठहरने, भोजन, चिकित्सा और सुरक्षा की व्यवस्थाएं की जाती हैं।
वारी यात्रा के दौरान वारकरी विशिष्ट धार्मिक प्रतीक अपनाते हैं:
वारकरी अपने गले में तुलसी की माला पहनते हैं जो पवित्रता और भक्ति का प्रतीक होती है। इसे पहनना संकल्प और संयम का संकेत माना जाता है।
यात्रा के दौरान वारकरी लगातार यह जाप करते हैं:
“पुंढलिक वरदा हरि विठ्ठल!”
“विठोबा रखुमाई की जय!”
यह जाप न केवल श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि पूरे मार्ग को भक्ति और ऊर्जा से भर देता है। ढोल-ताशों की धुन, वीणा और मृदंग की थापों के बीच यह वातावरण आध्यात्मिक हो उठता है।
वारी केवल धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि सामाजिक समानता, सेवा और एकता का संदेश देती है:
सभी जाति-वर्ग, समुदाय और आर्थिक स्थिति के लोग इसमें बराबरी से हिस्सा लेते हैं।
रास्ते में गांव-गांव में श्रद्धालु वारकरियों का स्वागत करते हैं और मुफ्त भोजन, जल और विश्राम की व्यवस्था करते हैं।
यह यात्रा महाराष्ट्र के सांस्कृतिक मूल्यों और संत परंपरा को जीवंत रखती है।